गुरुवार, 25 सितंबर 2014

माँ है दुर्गा, माँजती है वह
जीवन को नवरात्रि में।
नव ऊर्जा-सुगंध-ज्योति
जगाती है कालरात्रि में।।

बुधवार, 2 जनवरी 2013

रुपहला हो हर क्षण, सुनहरा हर दिन; खुशियों के सागर हों, सौगातें अनगिन। सफलता-हर्ष भरे नववर्ष हेतु कोटिशः बधाई।

बुधवार, 13 जनवरी 2010

नई सुबह

हर सुबह नई तो होती है

खास नहीं

सपनों की बारात तो होती है

पास नहीं

सुबह आज है लेकर आई

स्वप्न-राग नए, नई तरंगें

मनचाही खुशियों की चाहत

सालों-साल उमंगें

प्रतिपल, प्रतिदिन नए साल का,

लेकर आए हर्ष्र

जन-मन के संग सभी मनाएँ

खुशी-खुशी नववर्ष।

Copyright©Dr. Ashwinikumar Shukla


मंगलवार, 20 अक्तूबर 2009

शुभ दीपावली



झिलमिल चिरागों के बीच
फैली खुशियों की उजास दूर तक,
स्वप्निल उड़ानों के बीच
अपनों का साथ सूर तक;
आती रहे दीवाली,
पसरी रहे हरियाली,
मुस्कराती रहे खुशहाली,
जीवन में सबके सुदूर तक।
Copyright©Dr. Ashwinikumar Shukla

शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

जीवन-पथ

तुम जीवन का राग सुनाओ, मैं कजरी के गीत।

तुम सतरंगी बाग लगाओ, मैं बन जाऊँ भीत।।

रिमझिम का संगीत बने कभी बूँदों की टिपटिप से;

मन हरषे औ तन सरसे फिर बारिश की छिपछिप से;

इंद्रधनुष-सी छटा बिखेरे चौमासी संगीत।

तुम सतरंगी बाग लगाओ, मैं बन जाऊँ भीत।।

शरद चाँदनी में सीझे कभी मन फूलों की खुशबू से;

धूप गुनगुनी में भीगे कभी तन जाड़ों की मस्ती से;

बर्फीले झोकों का मौसम यूँ ही जाए बीत।

तुम सतरंगी बाग लगाओ, मैं बन जाऊँ भीत।।

सुरभित मंद समीर बसंती सहलाए जब मन हौले से;

बन छाया स्मृति रसवंती कर जाए तर दिन खौले-से;

आतप के भी दारुण दुःख से हम जाएँगे जीत।

तुम सतरंगी बाग लगाओ, मैं बन जाऊँ भीत।।

तुम जीवन का राग सुनाओ, मैं कजरी के गीत।

तुम सतरंगी बाग लगाओ, मैं बन जाऊँ भीत।।


Copyright©Dr.Ashwinikumar Shukla

मंगलवार, 8 सितंबर 2009

जीवन-यात्रा

मैं लहरों पे चलता जाऊँ, मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।

विकसित कमलों के प्रांगण में,

मधुपों के लोलुप गुंजन में,

मानसरोवर के जल-तल में,

सहमा-सहमा तिरता जाऊँ। मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।

खेतों-खलिहानों-मधुवन में,

धरती-तारों और गगन में,

मानव बनने की लगन में,

गिरता-पड़ता-उठता जाऊँ। मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।

हर घाटी के ओर-छोर में,

हर पर्वत के पोर-पोर में,

किरण-राशि की डोर-डोर में,

रमता-थमता-चलता जाऊँ। मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।

सर-सरिता-सागर-निर्झर में,

पनघट-जमघट नगर-डगर में,

बाग-बगीचों और टगर में,

भरमाता-इतराता जाऊँ। मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।

जीवन-संगर के सागर में,

स्नेह प्रभामय रत्नाकर में,

दिव्य-ज्योतिमय करुणाकर में,

डूबता-सा उतराता जाऊँ। मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।

मैं लहरों पे चलता जाऊँ, मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।


Copyright©Dr.Ashwinikumar Shukla

सोमवार, 7 सितंबर 2009

अनुभव

जाने कितने लोग मिले, जाने कितने रोज मिले

कुछ अच्छे, कुछ मन के सच्चे, लेकिन कुछ मदहोश मिले।।

हुआ राग जो करता है होता है वह गीत नहीं;

धुआँ उड़ा जो करता है वह सावन का मीत नहीं;

चुआ नेह जो करता है तो जाता वह रीत नहीं;

युवा भाव साथीपन का क्षण में जाता बीत नहीं।

शब्दों के संसार मिले, चित्रों के बाजार मिले।

कुछ अच्छे, कुछ बेहद सच्चे, लेकिन कुछ बेकार मिले।। जाने कितने.....।।

बहते पानी के रुकने से जगती का उद्धार नहीं;

रमते योगी के जमने से लोकों का उपकार नहीं;

उड़ते मेघों के थमने से बारिश और मल्हार नहीं;

झड़ते पत्तों के बचने से धरती का श्रृंगार नहीं।

सपनों के जो गाँव मिले, हरियाली के ठाँव मिले।

कुछ अच्छे, कुछ अनुपम सच्चे, लेकिन कुछ बेथाह मिले।। जाने कितने.....।।

नियति नटी की प्रीति करे सपनों को साकार नहीं;

कुमति कपट की नीति धरे सुफलों के आकार नहीं;

मैले मन मक्कारी से बड़ा कोई व्यभिचार नहीं;

धोखेबाजी नफरत से पा सकता कोई प्यार नहीं;

बगुले कितने श्वेत मिले, एक नहीं समवेत मिले।

कुछ अच्छे, कुछ बरबस सच्चे, लेकिन कुछ रंगरेज मिले।। जाने कितने.....।।


Copyright©Dr.Ashwinikumar Shukla