मंगलवार, 8 सितंबर 2009

जीवन-यात्रा

मैं लहरों पे चलता जाऊँ, मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।

विकसित कमलों के प्रांगण में,

मधुपों के लोलुप गुंजन में,

मानसरोवर के जल-तल में,

सहमा-सहमा तिरता जाऊँ। मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।

खेतों-खलिहानों-मधुवन में,

धरती-तारों और गगन में,

मानव बनने की लगन में,

गिरता-पड़ता-उठता जाऊँ। मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।

हर घाटी के ओर-छोर में,

हर पर्वत के पोर-पोर में,

किरण-राशि की डोर-डोर में,

रमता-थमता-चलता जाऊँ। मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।

सर-सरिता-सागर-निर्झर में,

पनघट-जमघट नगर-डगर में,

बाग-बगीचों और टगर में,

भरमाता-इतराता जाऊँ। मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।

जीवन-संगर के सागर में,

स्नेह प्रभामय रत्नाकर में,

दिव्य-ज्योतिमय करुणाकर में,

डूबता-सा उतराता जाऊँ। मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।

मैं लहरों पे चलता जाऊँ, मैं प्रवाह अनुकूल बनाऊँ।


Copyright©Dr.Ashwinikumar Shukla

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