शुक्रवार, 9 अक्तूबर 2009

जीवन-पथ

तुम जीवन का राग सुनाओ, मैं कजरी के गीत।

तुम सतरंगी बाग लगाओ, मैं बन जाऊँ भीत।।

रिमझिम का संगीत बने कभी बूँदों की टिपटिप से;

मन हरषे औ तन सरसे फिर बारिश की छिपछिप से;

इंद्रधनुष-सी छटा बिखेरे चौमासी संगीत।

तुम सतरंगी बाग लगाओ, मैं बन जाऊँ भीत।।

शरद चाँदनी में सीझे कभी मन फूलों की खुशबू से;

धूप गुनगुनी में भीगे कभी तन जाड़ों की मस्ती से;

बर्फीले झोकों का मौसम यूँ ही जाए बीत।

तुम सतरंगी बाग लगाओ, मैं बन जाऊँ भीत।।

सुरभित मंद समीर बसंती सहलाए जब मन हौले से;

बन छाया स्मृति रसवंती कर जाए तर दिन खौले-से;

आतप के भी दारुण दुःख से हम जाएँगे जीत।

तुम सतरंगी बाग लगाओ, मैं बन जाऊँ भीत।।

तुम जीवन का राग सुनाओ, मैं कजरी के गीत।

तुम सतरंगी बाग लगाओ, मैं बन जाऊँ भीत।।


Copyright©Dr.Ashwinikumar Shukla

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें